मंगलवार, 26 मार्च 2013

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हमें अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम जाने से रोकना होगा


                   हमें अपने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम जाने से रोकना होगा


by Jai Parkash (नोट्स) on 16 मार्च 2013 को 06:42 अपराह्न बजे
रोटी, कपड़ा और मकान के
अलावा हमें अपने रिश्तों
का मूल्य समझना होगा।
पितृ-दोष पूजा के बजाए,
हमें जीते जागते अपने बुजुर्गॉ
की पूजा करनी होगी।
अपने प्यार व  सेवा-भाव से
प्रसन्न कर  वृद्धाश्रम जाने से
रोकना होगा।  
मानवता की असली पहचान उसका दूसरों के साथ प्रेम, सद्भावना व आत्मीयता से व्यवहार करना है। परन्तु जब बुजुर्गों के मामले में हम अपने इस व्यवहार को क्यों भूल जाते हैं? जो माता-पिता हमें अच्छी शिक्षा दिलाते हैं। प्रत्येक सुविधा-साधन उपलब्ध कराने की कोशिश  हैं।  हमें आत्मनिर्भर बनना सिखाते हैं। वे अपना पूरा जीवन हमें सफल बनाने और हमारे पालन- पोषण में समर्पित कर देते हैं और जब दायित्व निभाने की हमारी बारी आती है तो हम मुंह मोड़ लेते हैं। आज उनकी पाबंदियां, रोक-टोक, सलाह-मशविरा बुरे लगते हैं। अपने जीवन के अनुभव से सही मार्गदर्शन या सलाह देते हैं तो हमें अखरता है। जब बेचारे शारीरिक रूप से कार्य करने मे. लाचार हो जाते हैं तो हम उन्हें अपना कम खुद करो या हमारे साथ रहना है तो  जैसे हम रखें वैसे ही रहो। जिससे जिनको हम अपना बुजुर्ग कहते या मानते हैं, अंदर से भी टूट  जाते हैं और हारकर वृद्धाश्रम का रास्ता खोज लेते हैं। जिन्होंने खुशहाल-समृद्ध परिवार का  सपना संजोया था, अकेले  वृद्धाश्रम की मृत दीवारों को देख-देख कर घुटकर अपना शेष जीवन व्यतीत करते हैं। यही हैं रिश्ते, प्यार और मानवता। ऐसा क्यों? हम क्यों भूल जाते हैं की जैसा  हम बोयेंगे वैसा ही काटेंगे। आज हम अपने बुजुर्गों के साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार कर रहें हैं,  हमारी भावी पीढ़ी न जाने हमारे साथ कैसा व्यवहार करेगी। नहीं, हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा हमें अपने रिश्तों का मूल्य समझना होगा। पितृ-दोष पूजा के बजाए, हमें जीते जागते अपने बुजुर्गॉ की पूजा करनी होगी। अपने प्यार व  सेवा-भाव से प्रसन्न कर  वृद्धाश्रम जाने से रोकना होगा।

भाग्य निर्माण में चन्द्रमा का अहम रोल


भाग्य निर्माण में चन्द्रमा का अहम रोल

by Jai Parkash (नोट्स) on 25 मार्च 2013 को 08:57 पूर्वाह्न बजे
 ''मन चंगा तो,
कठोती में गंगा''
भारतीय ज्योतिष में चन्द्रमा मन का कारक ग्रह है। मन में विचार उत्पन्न होते हैं और मन के विचार ही उसके भाग्य का निर्माण करने में सहायक होते हैं। शुभ (अच्छे) विचार व्यक्ति को समृद्धि और सफलता की ओर, जबकि अशुभ (बुरे) विचार अवनति की ओर  ले जाते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है,'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत'। 
चन्द्रमा का बुद्धि, विवेक, कल्पनाशक्ति और वाणी पर अधिकार होता है।  शुक्ल पक्ष या स्वराशी का  शुभ चन्द्रमा आशावादी (सकारात्मक सोच) बनता है। जबकि क्षीण या अशुभ चन्द्रमा निराशावादी (नकारात्मक सोच) का निर्माण करता है जिससे क्रोध, भय, ईर्ष्या, द्वेष, निराशा व अनिद्रा आदि विषयों का जन्म होता है। क्रोध, भय तथा चिंताग्रस्त मन:स्थिति में विवेक का अभाव होने से उचित निर्णय नहीं लिया जा सकता। स्वामी शिवानन्द के अनुसार, ''क्रोध मानसिक दुर्बलता की निशानी है, इसका प्रारम्भ मूर्खता से तथा अंत पश्चाताप से होता है। '' वैसे ही जब क्रोध अपनी चरम सीमा पर होता है तो मधुर रिश्तों में भी कड़वाहट घोल देता है।  चाहे वह सम्बंध पति-पत्नी का हो, पिता-पुत्र का या चाहे साझेदार का हो। ऐसे व्यक्ति मन की निराशा और चिंता को भाग्य के भरोसे छोड, सोचने लगते हैं की हमारा जीवन ही कष्ट भोगने के लिए है। 
मानस रोग एक ऐसा रोग है, जो व्यक्ति को अंदर से खोखला क्र देता है। जब चन्द्र ग्रह किसी अशुभ भाव या किसी अशुभ ग्रह से दृष्ट हो तो बुद्धि भ्रमित्त हो जाती है, मन की एकाग्रता भंग हो जाती है, वाणी में कड़वाहट तथा शक्ति क्रोध में परवर्तित हो जाती है। जिन लोगों का चन्द्रमा निर्बल होता है उन्हें क्रोध बहुत आता  है, मन बैचन रहता है। अत: मन पर नियन्त्रण रखने या जिनका चन्द्र ग्रह की निर्बल है, उन्हें निम्न उपाय करने से काफी लाभ प्राप्त हो सकता है। 
० अमावस्या को पितरों के नाम गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए।
० पानी में दूध डालकर स्नान करना चाहिए।
० आग्नेय कोण में शयन नहीं करना चाहिए। 
० दूध में काले तिल डालकर शिवलिंग स्नान कराएँ।
० शुक्लपक्ष के सोमवार से ' ॐ जूं स:' मन्त्र का शिवालय या शिवमूर्ति के समक्ष जाप करना चाहिए। 
                                                                                       
                                                           --जय प्रकाश भारद्वाज द्वारा वैदिक टाइम्स पौष-माघ २०१३ में प्रकाशित  
                                                     

पहले से ही कफन की तैयारी


पहले से ही कफन की तैयारी

by Jai Parkash (नोट्स) on 23 मार्च 2013 को 02:40 अपराह्न बजे
प्रिय दोस्तों, 
 नमस्कार। हम सभी जानते हैं की धुम्रपान शरीर को खोखला कर देता है। यह जानते हुए भी हम इसको अपना लेते हैं और इसके इतने दीवाने हो जाते हैं कि फिर गुलाम बनकर रह जाते हैं। धुम्रपान का त्याग त्याग करना कोई कठिन कार्य नहीं है। आप इस धुम्रपान रूपी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की कोशिश तो करके देखो। इन्सान क्या नहीं कर सकता। इन्सान में बड़ी ताकत है। जब इन्सान चाँद पर पहुंच सकता है तब  इसका त्याग तो बड़ी आसानी से कर सकता है। बस जरूरत है मजबूत आत्मविश्वास की। सबसे पहले आप मन को काबू में कर दृड़ निश्चय के साथ संकल्प लीजिये कि मुझे धुम्रपान से दूर रहना है। अगर बहुत दिन से इसके आदी हैं तो धीरे-धीरे कम करते जाइये। यदि कुछ ही दिन से अपनाया है तब एकदम से छोड़ दीजिये। जब भी इसकी तलब लगे तो आप मन पर नियन्त्रण रखते हुए भुना जीरा, चिंगम  या जल
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मम्मी-पापा रहम करो मुझे भी इस जग में आ जाने दो


मम्मी-पापा रहम करो मुझे भी इस जग में आ जाने दो

by Jai Parkash (नोट्स) on 22 मार्च 2013 को 07:44 अपराह्न बजे
एक बूंद समाई गर्भ में, माँ बनने का अहसास हुआ।
सोचा, गूंजेगी किलकारी, घर में खुशियों का त्योहार हुआ।
मातम सा छाया तब घर में, जब पता लगा कन्या है।
दादी बोली, हमें नहीं चाहिए, पिता की नहीं तमन्ना है।
सिर्फ लिंग जानकर दुखी हुए, क्या इतनी बदकिस्मत वाली हूँ।
जिस नारी वंश से पिता, तूने जन्म लिया, मैं उसी वंश की फुलवारी हूँ।  
माँ क्या तुम चाहती हो, मर जाऊं मैं, इस जग में आने से पहले।
क्या अपने दिल के टुकड़े को, तुम कर दोगी डॉक्टर के हवाले।
माँ रोऊँ भी तो कैसे रोऊँ, मुँह से आवाज नहीं आती।
ये पाप नहीं महापाप है, मत बनो तुम इसके भागी। 
मैं भगत सिंह, आजाद गुरु जैसे सपूत जन सकती हूँ।
मैं कल्पना, मदर टेरेसा बनकर तुम्हारा नाम रोशन कर सकती हूँ।
मैं कर सकती हूँ, वो सब कुछ, जो पुरुष आज का करता है।
खेल, विज्ञान, डाक्टरी में, नारी का सिक्का चलता है।
सिर्फ दहेज खर्च के डर से, तुम मुझे मारना चाहते हो।
मैं कली तुम्हारे आंगन की, मुझे आंगन महकाने दो।
माँ रहम  करो, पिता रहम करो, मुझे इस जग में आ जाने दो। 
मुझे फूल बनकर खिल जाने दो, मुझे इस जग में आ जाने दो। 
-जय प्रकाश भारद्वाज, सम्पादक,'द वैदिक टाइम्स'

संस्कृत माँ, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है


संस्कृत माँ, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है

by Jai Parkash (नोट्स) on 26 मार्च 2013 को 04:12 अपराह्न बजे
''मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ।
मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी
सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा की
लोग अंग्रेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय
किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।''